Sunday, October 30, 2011

हे नारी


  
तुझे ललित, सुंदर नारीपण
मनमोहक आहे
नेत्रसुखद आहे
तुझ्या सुरेख, सुडौल शरीरावर
निसर्ग आणि नियती
प्रगट करतात तरूणपण
तेव्हा तुझे नश्वर शरीर
होते अजरामर अनेक
कलाकृतींचे प्रदर्शन
वा प्रदर्शनीय संग्रहालय
तुझ्या दर्शनानेच कलावंतांना
सुचतात कलाकृती आणि वास्तुशिल्पे
तुझ्या आशयपूर्ण उरोजावरून
देवालयाची मस्तके,
कळस साकार झाले आहेत
आणि ती स्वर्गाशी
सतत संवाद करतात असे मानले जाते आहे
हे नारी,
तुझे प्रिय प्रेयसीपण तर
पूर्वीपासून काव्यनाटकांना अमर करते आहे
अन् घरोघरी, सर्वभर
तुझे पत्नीपण सर्व पतींना
स्वर्गासम वाटते आहे.
तुझेच तुझे आईपण तर
परमेश्वराला भारी भरते आहे.
श्रद्धा, भक्तिभाव तुझ्यामुळेच
घरोघरी, मनोमनी आकाराला आलेले आहे
धर्मप्रचारकांनी हे तुझे महन मंगळपण
त्यांच्या देवासाठी लुटले आहे, लाटले आहे
तुझे प्रेमळ आईपण पाहून
तुझी सर्व पोरावली माया पाहून
पिता परमेश्वराची कल्पना
प्रेषितांना सुचली
अशी तू,
सर्व महन्मंगल कल्पनांची माता तू  !
पहिल्या प्रेमाची मालकीण तू  !
प्रियतमा तू  !
स्वर्गाहून सुंदर तू  !
प्रिय पत्नी तू  !
संसारातील स्वर्ग तू  !
वासना विकारांचा वसंतोत्सव तू  !
देव, धर्म, देवळांहून भारी तू  !
नारी म्हणूनही आई म्हणूनही  !

-- बाबूराव बागूल --- 

Friday, October 28, 2011

खबरें आपके इंतजार में हैं एसपी….


इंतजार में हैं एसपी ……
------निरंजन परिहार-----
एसपी सिंह
वह शुक्रवार था। काला शुक्रवार। इतना काला कि वह काल बनकर आया। और हमारे एसपी को लील गया। 27 जून 1997 को भारतीय मीडिया के इतिहास में सबसे दारुण और दर्दनाक दिन कहा जा सकता है। उस दिन से आज तक पूरे चौदह साल हो गए। एसपी सिंह हमारे बीच में नहीं है। ऐसा बहुत लोग मानते हैं। लेकिन अपन नहीं मानते। वे जिंदा है, आप में, हम में, और उन सब में, जो खबरों को खबरों की तरह नहीं, जिंदगी की तरह जीते हैं। यह हमको एसपी ने सिखाया। वे सिखा ही रहे थे कि..... चले गए।
एसपी। जी हां, एसपी। गाजीपुर गांव के सुरेंद्र प्रताप सिंह को इतने बड़े संसार में इतने छोटे नाम से ही यह देश जानता हैं। वह आज ही का दिन था, जब टेलीविजन पर खबरों का एकदम नया और गजब का संसार रचनेवाला एक सख्स हमारे बीच से सदा के लिए चला गया। तब दूरदर्शन ही था। जिसे पूरे देश में समैन रूप से सनातन सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता था। देश के इस राष्ट्रीय टेलीविजन के मेट्रो चैनल की इज्ज्त एसपी की वजह से बढ़ी। क्योंकि वे उस पर रोज रात दस बजे खबरें लेकर आते थे। पर, टेलीविजन के परदे से पार झांकता, खबरों को जीता, दृश्यों को बोलता और शब्दों को तोलता वह समाचार पुरुष खबरों की दुनिया में जो काम कर गया, वह आजतककोई और नहीं कर पाया। 27 जून, 1997 को दूरदर्शन के दोपहर के बुलेटिन पर खबर आई – ‘एसपी सिंह नहीं रहे।और दुनिया भर को दुनिया भर की खबरें देनेवाला एक आदमी एक झटके में खुद खबर बन कर रह गया। मगर, यह खबर नहीं थी। एक वार था, जो देश और दुनिया के लाखों दिलों पर बहुत गहरे असर कर गया। रात के दस बजते ही पूरे देश को जिस खिचड़ी दढ़ियल चेहरे के शख्स से खबरें देखने की आदत हो गई थी। वह शख्स चला गया। देश के लाखों लोगों के साथ अपने लिए भी वह सन्न कर देनेवाला प्रहार था।
अपने जीवन के आखरी न्यूज बुलेटिन में बाकी बहुत सारी बातों के अलावा एसपी ने तनिक व्यंग्य में कहा था – ‘मगर जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।टेलीविजन पर यह एसपी के आखरी शब्द थे। एसपी ने यह व्यंग्य उस तंत्र पर किया था, जो मानवीय संवेदनाओं को ताक में रखकर जिंदगी को सिर्फ नफे और नुकसान के तराजू में तोलता है। उस रात का वह व्यंग्य एसपी के लिए विड़ंबना बुनते हुए आया, और उन्हें लील गया। इतने सालों बाद भी अपना एसपी से एक सवाल जिंदा है, और वह यही है कि - खबरें तो अभी और भी थीं एसपी... और जिंदगी भी अपनी रफ्तार से चलती ही रहती, पर आप क्यों चले गए। इतने सालों बाद आज भी हमको लगता है, कि न्यूज टेलीविजन और एसपी, दोनों पर्याय बन गए थे एक दूसरे का। आजतकको जन्म देने, उसे बनाने, सजाने संवारने और दृश्य खबरों के संसार में नई क्रांति लाकर खबरों के संसार में नंबर वन बन बैठे एसपी ने आजतकको ही अपना पूरा जीवन भी दान कर दिया। जीना मरना तो खैर अपने हाथ में नहीं है, यह अपन जानते हैं। मगर फिर भी, यह कहते हैं कि एसपी अगर आजतकमें नहीं होते, तो शायद कुछ दिन और जी लेते।
एसपी सिंह की पुण्यतिथि 27 जून पर विशेषवह बॉर्डरथी, जो एसपी की जिंदगी की भी बॉर्डरबन आई थी। सनी देओल के बेहतरीन अभिनय वाली यह फिल्म देखने के लिए दिल्ली के उपहारसिनेमा में उस दिन बहुत सारे बच्चे आए थे। वहां भीषण आग लग गई और कई सारे बच्चों के लिए वह सिनेमाघर मौत का उपहारबन गया। बाकी लोगों के लिए यह सिर्फ एक खबर थी। मगर बेहद संवेदनशील और मानवीयता से भरे मन वाले एसपी के लिए यह जीवन का सच थी। जब बाकी बुलेटिन देश और दुनिया की बहुत सारी अलग अलग किस्म की खबरें परोस रहे थे, तो उस शनिवार के पूरे बुलेटिन को एसपी ने बॉर्डरऔर उपहारको ही सादर समर्पित कर दिया। टेलीविजन पर खबर परोसने में यह एसपी का अपना विजन था। शनिवार सुबह से ही अपनी पूरी टीम को लगा दिया। और शाम तक जो कुछ तैयार हुआ, उस बुलेटिन को अगर थोड़ा तार तार करके देखें, तो उसमें एसपी का एक पूरा रचना संसार था। जिसमें मानवीय संवेदनाओं को झकझोरते दृश्यों वाली खबरों को एसपी ने जिस भावुक अंदाज में पेश किया था, उसे इतने सालों बाद भी यह देश भूला नहीं है। दरअसल, वह न्यूज बुलेटिन नहीं था। वह कला और आग के बीच पिसती मानवीयता के बावजूद क्रूर अट्टहास करती बेपरवाह सरकारी मशीनरी और रुपयों की थैली भरनेवाले सिनेमाघरों के स्वार्थ की सच्चाई का दस्तावेज था। एसपी ने उस रात के अपने इस न्यूज बुलेटिन में इसी सच्चाई को तार तार किया, जार जार किया और बुलेटिन जैसे ही तैयार हुआ, एसपी ने बार बार देखा। फिर धार धार रोए। जो लोग एसपी को नजदीक से जानते थे, वे जानते थे कि एसपी बहुत संवेदनशील हैं, मगर इतने...?
दरअसल, एसपी के दिमाग की नस फट गई थी। जिन लोगों ने शुक्रवार के दिन बॉर्डरदेखने उपहारमें आए बच्चों की मौत के मातम भरे मंजर को समर्पित शनिवार के उस आजतक को देखा है, उन्होंने चौदह साल बाद भी आजतक उस जैसा कोई भी न्यूज बुलेटिन नहीं देखा होगा, यह अपना दावा है। और यह भी लगता है कि हृदय विदारक शब्द भी असल में उसी न्यूज बुलेटिन के लिए बना होगा। एसपी की पूरी टीम ने जो खबरें बुनीं, एसपी ने उन्हें करीने से संवारा। मुंबई से खास तौर से बॉर्डरके गीत मंगाए। उन्हें भी उस बुलेटिन में एसपी ने भरा। धू धू करती आग, जलते मासूम, बिलखते बच्चे, रोते परिजन, कराहते घायल, सम्हालते सैनिक, और मौन मूक प्रशासन को परदे पर लाकर पार्श्व में संदेसे आते हैं...की धुन एसपी ने इस तरह सजाई गई कि क्रूर से क्रूर मन को भी अंदर तक झकझोर दे। तो फिर एसपी तो भीतर तक बहुत संवेदनशील थे। कोई बात दिमाग में अटक गई। यह न्यूज बुलेटिन नहीं, आधे घंटे की पूरी डॉक्यूमेंट्री थी। और यही डॉक्यूमेंट्रीनुमा न्यूज बुलेटिन एसपी के दिमाग की नस को फाड़ने में कामयाब हो गया।
जिंदगी से लड़ने का जोरदार जज्बा रखनेवाले एसपी अस्पताल में पूरे तेरह दिन तक उससे जूझते रहे। मगर जिंदगी की जंग में आखिर हार गए। सरकारी तंत्र की उलझनभरी गलियों में अपने स्वार्थ की तलाश करनेवालों का असली चेहरा दुनिया के सामने पेश करनेवाले अपने आखरी न्यूज बुलेटिन के बाद एसपी भी आखिर थक गए। बुलेटिन देखकर अपने दिमाग की नस फड़वाने के बाद तेरह दिन आराम किया और फिर विदाई ले ली। पहले राजनीति की फिर पत्रकारिता में आए एसपी ने 3 दिसंबर 1948 को जन्मने के बाद गाजीपुर में चौथी तक पढ़ाई की। फिर कलकत्ता में रहे। 1964 में बीए के बाद राजनीति में आए, पर खुद को खपा नहीं पाए। सो, 1970 में कलकत्ता में खुद के नामवाले सुरेंद्र नाथ कॉलेज में लेक्चररी भी की। पर, मामला जमा नहीं। दो साल बाद ही धर्मयुगप्रशिक्षु उप संपादक का काम शुरू किया। फिर तो, रुके ही नहीं। रविवार, नवभारत टाइम्स और टेलीग्राफ होते हुए टीवी टुडे आए। और यहीं आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू करने का पराक्रम किया, जो उनसे पहले इस देश में और कोई नहीं कर पाया। वे कालजयी हो गए। कालजयी इसलिए, क्योंकि दृश्य खबरों के संसार का जो ताना बाना उनने इस देश में बुना, उनसे पहले और उनके बाद और कोई नहीं बुन पाया।
टेलीविजन खबरों के पेश करने का अंदाज बदलकर एसपी ने देश को एक आदत सी डाल दी थी। आदत से मजबूर उन लोगों में अपने जैसे करोड़ों लोग और भी थे। लेकिन मीडिया में अपन खुद को खुशनसीब इसलिए मानते हैं, क्योंकि अपन एसपी के साथ जब काम कर रहे थे, तो उनके चहेते हुआ करते थे। अपन इसे अपने लिए गौरव मानते रहे हैं। एसपी जब टेलीविजन के काम में बहुत गहरे तक डूब गए थे, तो उनने एक बार अपन से कहा था जो वे अकसर कईयों को कहा करते थे – ‘यह जो टेलीविजन है ना, प्रिंट मीडिया के मुकाबले आपको जितना देता है, उसके मुकाबले आपसे कई गुना ज्यादा वसूलता है।एसपी ने बिल्कुल सही कहा था। टेलीविजन ने एसपी को शोहरत और शाबासी बख्शी, तो उसकी कीमत भी वसूली। और, यह कीमत एसपी को अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ी। मगर आपने तो आखरी बार भी यही कहा था एसपी कि - जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।पर, जिंदगी तो थम गई। मगर खबरें अभी और भी हैं जो आज भी खबर हो जाने के लिए एसपी का इंतजार कर रही हैं|
(माझे फेसबुक मित्र श्री दिलीप मंडल यांच्या वॉलवरून साभार
मेरे फेसबुक मित्र श्री दिलीप मंडल साहब की वॉल से साभार ..)
संकलनः- वैभव छाया  

Thursday, October 27, 2011

तुला व्हावेच लागेल ‘आंबेडकर’


 
मनू मानी ज्यांना महाअरी
तिथे तुझा जन्म झाला असेल तर
तुला व्हावेच लागेल आंबेडकर
युगांतरकारी आंबेडकर’!
क्रांतिकारी आंबेडकर’!
मनूचा मर्मांतक वैरी  आंबेडकर’!
 दुसरा पर्यायच नाही
 तुला व्हावेच लागेल आंबेडकर’!
 आंबेडकर  एवढा मोठा नाहीस झाला
 तरी लहानगा का होईना
 आंबेडकरच व्हावे लागेल तुला
 तुझ्या बापावरी मजूर नाही,
 वा मास्तरही नाही,
 कलेक्टरही नाही,
 फक्त आंबेडकर होणे आहे तुला
 म्हणजे सम्यक क्रांतीला
 देशात आणणे आहे तुला  !
 इथे या देशातील दुष्टांनी
 कधी देव होवून
 कधी देवावतार होवून
 कधी धर्म होवून
 फार छळले आहे देशवासीयांना  !
 स्त्री, शूद्र बहिष्कृतांना  !
 मूळ मालक असल्यामुळे
 एवढे पिडले की,
 तुझा संघर्षशील आंबेडकर होण्याविणा,
 संगरामागे संगर केल्याविणा
 गत्यंतर नाही तुला
 आंबेडकरांचे अनुकरण
 करणे जरूर आहे तुला
 अनेक युगांनंतर
 अनेक एकलव्य, शंभुकांनंतर
 एक आंबेडकर
 जगू शकले फक्त
 अन् तू त्यांच्यानंतर जगलेला!
 तुझ्या विकासाला कारण
 तू एकटा नाहीस,
 आणि नाही हिंदू धर्मपण
 तुझ्या विकासाला कारण
 आंबेडकर !
 हे ध्यानात धर
 त्यांचे अनुकरण कर
 अथवा दारूण देशभक्त
 क्रूर, कठोर क्रांती कर
 त्याविना हा भगवान बुद्धाचा
 सुफळ, सुंदर, समृद्ध देश
 ्रबुद्ध भारतोणार नाही
 राहील दंगलखोर कौरव पांडवांचा देश
 म्हणून मी म्हणतो
 तुला व्हावेच लागेल आंबेडकर
 करुणामय, क्रांतिकारक आंबेडकर’!
 भारत भाग्यविधाता  आंबेडकर’!
--- बाबूराव बागूल----

सचमुच ही मीडिया के महानायक थे एसपी सिंह



राजेश त्रिपाठी
मुझ जैसे कई पत्रकारों को हिंदी साप्ताहिक 'रविवार' में 10 साल तक एसपी के साथ काम करने और सार्थक पत्रकारिता से जुड़ने का अवसर मिला। हमने उस व्यक्तित्व को समीप से जाना-पहचाना जो साहसी व सुलझा हुआ था और जिसे खबरों की सटीक और अच्छी पहचान थी। सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता की उन्होंने जो शुरुआत इस साप्ताहिक से की, वह पूरे देश में प्रशंसित-स्वीकृत हुई। यह उनकी सशक्त पत्रकारिता का ही परिणाम था कि 'रविवार' ने सत्ता के उच्च शिखरों तक से टकराने में हिचकिचाहट न दिखायी।
इसके चलते 'रविवार' के खिलाफ कोई न कोई मामला दर्ज होता ही रहता था। लेकिन विश्ववसनीयता इतनी थी कि विधानसभाओं तक में इसके अंक प्रमाण के तौर पर लहराए जाते थे। खबरों की उनकी पकड़ का एक प्रमाण भागलपुर आंखफोड़ कांड की घटना से समझा जा सकता है। यह खबर 'आर्यावर्त' के भीतरी पृष्ठ पर इस तरह से उपेक्षित ढंग से छपी थी कि कहीं किसी की नजर न पड़ सके। एसपी को यह बहुत खराब लगा। पत्रकार धर्म की यह उदासीनता उन्हें भीतर तक कचोट गई। उन्होंने हमारे एक साथी अनिल ठाकुर को (जो भागलपुर के ही रहने वाले हैं) तत्काल भागलपुर भेजा और भागलपुर आंखफोड़ कांड का काला अध्याय 'रविवार' की आमुख कथा बना। जैसा स्वाभाविक है, तहलका मच गया। इसके बाद अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं ने भी इसे प्रमुखता से छापा। अफसोस इस बात का है कि अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं को तो इस पर पुरस्कार मिले लेकिन 'रविवार' जिसने इस स्टोरी को प्रमुखता से ब्रेक किया, के हिस्से सिर्फ पाठकों और चहानेवालों की शुभकामनाएं ही आईं। यहां कहना पड़ता है कि अगर हिंदी अब भी दासी है तो इसके दोषी शायद हम हिंदीभाषी या कहें हिंदीप्रेमी भी हैं।

मैंने जिक्र किया कि 'रविवार' व्यवस्था विरोधी (सारी व्यवस्था नहीं, वह जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हो) पत्र था इसलिए मामले उस पर होते ही रहते थे। इसी तरह का एक प्रसंग याद आता है। हम सभी आनंद बाजार प्रकाशन समूह के प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट स्थित कार्यालय में काम कर रहे थे। एसपी अपने चेंबर में थे। अचानक कुछ पुलिस अधिकारी उनसे मिलने आए। स्थानीय पुलिस अधिकारी अक्सर उनसे मिलने आते रहते थे। हम लोगों ने सोचा, वैसे ही कोई अधिकारी होंगे। कार्य में व्यस्त रहने के कारण हम लोग उनका परिचय नहीं पूछ सके और उनको एसपी के चेंबर में जाने दिया। थोड़ी देर में एसपी चेंबर से उन लोगों के साथ निकले और बोले-'अरे, भइया जरा पूछ लिया करो कि कौन हैं, कहां से हैं, ये मध्य प्रदेश पुलिस के अधिकारी हैं। मैं गिरफ्तार हो चुका हूं और अब जमानत लेने जा रहा हूं।' हमें याद आया कि मध्य प्रदेश विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष पर एक स्टोरी 'रविवार' में छपी थी और उन्होंने मामला कर दिया था। उसके बाद से एसपी ने अग्रिम जमानत ही ले रखी थी।
सहजता तो जैसे उनका अभिन्न अंग था। 'रविवार' ज्वाइन करने के बाद मैं उनके गृहनगर श्यामनगर के पास गारुलिया गया तो पाया वे चंदन प्रताप सिंह को दुलार रहे हैं। चंदन तब छोटे थे। थोड़ी देर तक उनसे बातें होती रहीं फिर बोले- 'चलो भइया, तुमको फुटबाल दिखाते हैं।' हमने समझा कि कहीं फुटबाल मैच हो रहा होगा, उसे दिखाने ले जा रहे हैं। लेकिन यह क्या? गारुलिया में हुगली के तट पर बरसात के उस मौसम में कीचड़ से भरे एक मैदान में एसपी दा अपने बड़े भाई नरेंद्र प्रताप सिंह व अन्य लोगों के साथ फुटबाल खेलने उतर गए। कुछ देर बाद कीचड़ से वे इचने लथपथ हो गए कि उनको पहचान पाना मुश्किल हो रहा था। उनमें बाल सुलभ सहजता और सरलता थी। बहुत कुछ कहती थी हलकी दाढ़ी वाले रोबीले चेहरे पर चमकती उनकी भावभरी आंखें।
जो भी उनके साथ काम कर चुका है, उनके खुलेपन और अपने सहकर्मियों के प्रति भ्रातृवत व्यवहार को आजीवन याद रखेगा। कभी भी उन्हें किसी सहकर्मी से ऊंची आवाज में बात करते नहीं देखा। कुछ गलती होती तो सहजता से समझाते और कहते-आप अपना लिखा किसी और से भी चेक करा लिया करें। अपने साथी गलती पकड़ेंगे तो उसमें शर्म की कोई बात नहीं। अगर गलती छूट गयी तो कल लाखों लोगों के सामने शर्मशार होना पड़ेगा और जवाबदेह होना पड़ेगा। एक बार की बात है। हम लोग कुछ खाली थे और कार्यालय में रवीन्द्र कालिया जी का उपन्यास 'काला रजिस्टर' पढ़ रहे थे। उन्होंने देखा तो कहा- 'भइया, ऐसे मजा नहीं आएगा। आओ मैं इस उपन्यास के पात्रों का परिचय दे दूं। कालिया जी ने हम लोगों के साथ रहते हुए ही इसे लिखा है और हमें जितना लिखते जाते, सुनाते भी जाते थे। अच्छा है मजा आयेगा।'
एसपी पर जितना भी लिखा जाए, कम है। 10 साल की स्मृतियां कम शब्दों में तो सिमट नहीं सकतीं लेकिन दो एक प्रसंग जो उनके संवेदनशील मन को उजागर करते हैं और जिनसे उनका हिंदी प्रेम झलकता है, वह देना आवश्यक समझता हूं। उनकी पत्रकारिता 'न दैन्यम् न पलायनम्' की पक्षधर थी। उन्होंने सच को सच की तरह ही उजागर किया। पत्रकारिता में सुदामा वृत्ति उन्हें पसंद नहीं थी। उनका मानना था कि हिंदी अपने आप में सक्षम और सशक्त भाषा है और हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी की बैसाखी की कोई आवश्यकता नहीं है। यही वजह है कि आनंद बाजार प्रकाशन समूह के 'रविवार' के बाद एसपी को जब दिल्ली के एक राष्ट्रीय पत्र में जुड़ने का प्रस्ताव आया और बताया गया कि अंग्रेजी अखबार का अनुवाद ही हिंदी अखबार में दिया जाए तो उन्होंने वहां से हटना ही श्रेयस्कर समझा। उसके बाद वे दिल्ली में 'द टेलीग्राफ' के राजनीतिक संपादक और फिर हिंदी के पहले निजी समाचार चैनल 'आज तक' के रूपकारों में रहे।
संवेदनशील इतने थे कि लोगों के दर्द को अपना दर्द समझते थे और उसे शिद्दत से महसूस भी करते थे। मेरे खयाल से यह अत्यंत संवेदनशीलता ही उनके असमय निधन का कारण बनी। दिल्ली के 'उपहार' सिनेमा के अग्निकांड में मृत लोगों के परिजनों का दर्द उन्होंने अपनी आंखों से देखा और दिल की गहराइयों से झेला। शनिवार को यह कार्यक्रम 'आज तक' में पेश करते वक्त उनकी आंखें नम थीं। वे कह गये 'ये थीं खबरें आज तक। इंतजार कीजिए सोमवार तक।' फिर वह सोमवार कभी नहीं आया। रविवार के दिन वे मस्तिष्काघात से संज्ञाशून्य हुए और फिर उन्हें बचाया नहीं जा सका। वैसे, एसपी जैसे व्यक्तित्व मरा नहीं करते। वे अपने कार्य से जीवित रहते हैं। भौतिक रूप से वे भले न हों लेकिन जब तक विश्व में सार्थक, सामाजिक सरोकार से जुड़ी पत्रकारिता है एसपी जीवित रहेंगे। लोगों के विचारों, कार्यों में एक सशक्त प्रेरणास्रोत के रूप में जीवित रहेंगे। मेरा उस महान आत्मा को शत-शत नमन।


(लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं। वे तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। कोलकाता के लायंस क्लब की ओर से 'श्रेष्ठ पत्रकार', कटक (उड़ीसा) की लालालाजपत राय विचार मंच संस्था से 'श्रेष्ठ हिंदी पत्रकार' के रूप में सम्मानित हो चुके हैं। व्रिक्रमशिला विद्यापीठ भागलपुर (बिहार) से विद्या वाचस्पति की मानद उपाधि। अनेक बाल उपन्यास, उपन्यास, कहानियां, कविताएं पत्र-पत्रकाओं में प्रकाशित। साहित्य अकादमी की 'हूज हू आफ इडियन राइटर्स' में परिचय प्रकाशित। रविवार, जनसत्ता, प्रभातखबर डाट काम में कार्य करने के बाद संप्रति हिंदी दैनिक सन्मार्ग, कोलकाता से संबद्ध। राजेश से संपर्क rajeshtripathi@sify.com के जरिए किया जा सकता है)

Tuesday, October 25, 2011

बाबूराव बागूल यांचे अध्यक्षीय भाषण


पहिले विद्रोही मराठी साहित्य संमेलन  --  बाबूराव बागूल यांचे अध्यक्षीय भाषण
७ फेब्रुवारी १९९९,  लोकशाहीर विलास घोगरे नगर, धारावी, मुंबई-१७

म. फुले, शाहू महाराज व डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी मनूनिर्मित दु:खाचा विनाश करण्याचा आटोकाट प्रयत्न केला. म्हणून त्यांना या विचारमंचावरून अभिवादन करतो. त्याचप्रमाणे महादेव गोविंद रानडे, लोकहितवादी आगरकर यांना म. फुल्यांची प्रभावळ, शाहू महाराज आणि त्यांची प्रभावळ, डॉ. आंबेडकर व त्यांची प्रभावळ, ज्ञानमहर्षि विठ्ठल रामजी शिंदे आणि त्यांची प्रभावळ, कार्ल मार्क्स आणि त्याची जगभरातील प्रभावळ या सर्वांना मी अभिवादन करतो. जे लेखक-कवी व विचारवंत वर्ग-जाती व्यवस्थेने निर्माण केलेली दु:खे पाहून, पुरुषसत्तेने निर्माण केलेली दु:खे पाहून खवळून उठले, त्या बहादुरांनाही मी अभिवादन करतो.
बंधू भगिनींनो, हे विद्रोही साहित्य संमेलन धारावी येथे भरत आहे ही फार आनंददायी घटना आहे. कारण ज्ञान, शिक्षण कोठे जावे, साहित्य कोठे निर्माण व्हावे असे महात्मा फुल्यांना, डॉ. आंबेडकरांना, कार्ल मार्क्सला वाटत होते, तोच हा परिसर आहे. त्याच कष्टकरी जनविभागाच्या सहकार्याने हे साहित्य संमेलन भरत आहे. शिक्षण जिथे जाऊ नये, ज्या जनविभागांना ज्ञान मिळू नये, सत्ता-संपत्ती-प्रतिष्ठा ज्यांना मिळू नये असे ऋग्वेदातील पुरूष सुक्तकारांना, मनुस्मृतीच्या सारख्या विषमतावादी स्मृतीकारांना वाटत होते. तेथेच त्या विषमतेविरुद्ध बंड करणारे हे साहित्य संमेलन होत आहे, याचा मला मनस्वी आनंद होत आहे.
विद्रोही जेथे जन्म पावेल आणि वाढेल त्या कामगार वर्गाच्या लेबर कॅम्प, धारावी परिसरात हे संमेलन भरत आहे. जो जनविभाग मनूस्मृतीने व पुरूषसुक्ताने बहिष्कृत व निषेधार्ह ठरला होता, त्याच शूद्रातिशूद्र जनतेला फुल्यांनी नायक ठरविले, त्यालाच डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांनी या देशाचे मालक ठरविले. कार्ल मार्क्सने क्रांतीचा अग्रदूत ठरविले, त्या जनतेच्या साक्षीने हे साहित्य संमेलन भरत आहे.....
मित्रांनो, भारतामध्ये वर्णवर्चस्ववादाच्या ऐवजी बुद्धाचा विचार अथवा भगवान महाविराचा विचार अथवा चार्वाकाचा विचार जर स्थायी झाला असता तर आजचे विषमतापूर्ण वास्तव अस्तित्वात राहिले नसते. तसेच अनेक श्रद्धा, अंधश्रद्धांचे जंजाळही उरले नसते. याचा अर्थ असा की, कष्टकर्‍यांचे शूद्रत्व, अस्पृश्यत्व व स्त्रियांचे दुय्यमत्त्व राहिले नसते. कोणीही आदिवासी वा भटकाविमुक्त राहिला नसता. सर्व जनविभाग हे जातीऐवजी वर्गात सामावलेले आपल्याला दिसले असते. त्यामुळे हा आपला स्वर्गाहून सुंदर असलेला सुजल, सफल आणि सकस असलेला देश हा आपला नाना रंगाचा, नाना रसांचा, नाना आकार प्रकारांचा देश जगाचा नेता आणि नियंता झालेला दिसला असता, परंतु ऋग्वेदाने मांडलेल्या पुरुषसुक्ताने या देशाचे वाटोळे केले...

पाय कधी डोक्याच्या जागी जाऊ शकत नाहीत, मांड्या कधी बाहू होऊ शकत नाहीत आणि डोळे हे पायाचे काम करू शकत नाही. मानवी शरीराची रचना अपरिवर्तनीय करण्याचा प्रयत्न केला. म्हणून भारतीय वाङ्मयामध्ये काव्य, नाटकांमध्ये कथा, दंतकथेमध्ये शूद्र अतिशूद्र नायक झाल्याचे उदाहरण नाही. फक्त रामायणात शंबूक हा लहानसा कथानायक म्हणून विचित्र आहे. त्याचप्रमाणे एकलव्य हाही कथानायक आहे. त्यांनी माणसांच्या नैसर्गिक प्रवृत्तीप्रमाणे सफल, समृद्ध आणि पारंगत होण्याचा प्रयत्न केला. एकलव्याचे क्षत्रिय होणे वा निष्णात होणे हे देखील अनैसर्गिक आहे, असे वाटल्याने महाभारतात एकलव्य हा पराभूत दाखवलेला आहे. तसाच शंबूकही मारला गेलेला आहे. याचा मतलब असा आहे की पायाने डोकं अथवा बाहू होण्याचा प्रयत्न करू नये, अथवा केल्याने शेवट शोकात्मक व दु:खात्मक होतो. शंबूक आणि एकलव्याची चित्रणे ही माणसाच्या सहज प्रवृत्तीला धोक्याचा इशारा देण्यासाठीच महाकाव्यात आणलेली आहेत. वर्गांतर, वर्णांतर, जात्यांतर अथवा स्थित्यंतर करून घेण्याचा जो प्रयत्न करतो त्याचा शेवट शंबूकासारखा वा एकलव्यासारखा शोकात्मक होतो. म्हणून कोणी आपली पायरी चढू नये असा इशारा ऋग्वेद देतो. स्मृत्या देतात तशीच महाकाव्येही देतात....

मित्रहो, संतही निर्माण झाले याचे कारण हिंदू वर्णव्यवस्थेची उदारता आहे असे नाही तर हिंदू दमनसत्ता ही जेव्हा अडचणीत सापडली होती व परकीय मुस्लिम सत्ता प्रस्थापित होत होती. त्या संक्रमण काळात संत आणि शिवाजी महाराजांचे सेनापती मंडळ नावारूपाला आलेले आहे. तसेच ब्रिटिश सत्ता असताना म. फुले व शुद अतिशूद्रातील अनेक विद्वान ब्रिटिश काळात उदयाला आलेले आहेत. डॉ. आंबेडकर व अनेक ती हिंदू वर्णवर्चस्ववादी दमनसत्ता अस्तित्वात नसल्यामुळे आलेली आहेत. हे कधी विसरू नये. वर्ग समाजात मात्र असे झालेले नाही. हे त्यांच्या लोककथा वाचून म्हणून शकतो कारण त्यांच्या लोककथांमध्ये राजकन्येशी धनगराच्या पोराचा विवाह झाल्याचे आपण वाचतो. तसेच शेतक-यांच्या पोराशी पुरोहिताच्या पोरीने विवाह केल्याचेही आपण वाचलेले आहे. किंवा शेतकरी राजा झाल्याचे व पुरोहित झाल्याचेही आपण वाचलेले आहे. याचे कारण येथे वर्गसमाज आहे व आपल्याकडे जातीसमाज आहे. त्यामुळे आपल्या आणि त्यांच्या लोक वाङ्मयामध्ये खूप फरक दिसतो... यावरून आपण असा निष्कर्ष काढू शकतो की, वर्ण जातिव्यवस्था ही शासक-शोषक वर्गाच्या हिताची होती, लाभाची होती आणि शूद्र-अतिशूद्र समाजाच्या हिताची नव्हती.

जातीव्यवस्था ही शूद्र-अतिशूद्रांना दु:ख, दैन्य, दास्य देण्यासाठीच चिरस्थानी करण्यासाठी जन्माला आलेली आहे. म्हणून या शेकडो वर्षांच्या इतिहासात तिच्या विरोधात उठलेला आवाज म्हणजे चक्रधरांचा महानुभाव पंथ आणि बसवेश्वरांचा लिंगायत पंथ किंवा वारकरी पंथ हे जातिनिर्मूलन करू शकले नाही व वर्गसमाज निर्माण करू शकले नाही. उलट या प्रथातच व्यवहारिक पातळीवर जातिभेद राहिले. मिथक समाजात जिकडे तिकडे जातीच जाती असल्यामुळे या तीनही चारही पंथात जातिभेद राहिले. डॉ. आंबेडकरांनी जसा अस्पृश्यतेच्या विरोधात उठाव केला. त्यांनी महाड सत्याग्रह करून एक पाठवठ्याच्या चळवळीचा आरंभ केला. सर्व जातींना एक पाणवठा ते निर्माण करू शकले नाहीत ही वस्तुस्थिती आहे. त्याचप्रमाणे काळाराम मंदिर नाशिक येथे पाच वर्ष सतत सत्याग्रह करूनही ते काळाराम मंदिर उघडू शकले नाहीत. परंतु या दोन गोष्टींवर त्यांनी आपली चळवळ व विचार मर्यादित केले नाहीत. त्यांनी शिक्षणाचा प्रसार केला व शिक्षण आणि नोक-यांमध्ये आरक्षण निर्माण करून जातिउच्चाटणाचे कार्य एका वेगळ्या पातळीवर केले. त्यांनी आत्मभिमान, जातीचा धंदा टाकून देण्याच्या प्रेरणा, वरिष्ठ जातींचे धंदे व्यवसाय पत्करण्याच्या प्रेरणा दिल्या. म्हणजे मनूने जेवढ्या पातळींवर जावून विषमता दृढ करण्याचा प्रयत्न केला तेवढ्या पातळ्यांवर जावून डॉ. आंबेडकरांनी समता, बंधूता स्थापण्याचा प्रयत्न केला. आजचा आधुनिक भारत घडविण्यामध्ये त्यांचा सिंहाचा वाटा आहे. तरीही अजून हिंदू समाजात एकात्म असा कामगार वर्ग जसा निर्माण झालेला नाही तसाच समाजात एकात्म असा कामगार वर्ग असा निर्माण झालेला नाही तसाच एकजिनसी मध्यम वर्ग व बुद्धिजीवी वर्ग निर्माण झालेला नाही. त्यामुळे भारतात दोन समांतर वास्तव आहे. एक वर्ण, वर्ग वर्चस्ववादी, हिंदू वास्तव व दुसरा वर्ण वर्ग विरोधी लोकशाही वास्तव. वर्ण वर्ग वर्चस्ववादी हिंदू वास्तव टिकेल तर या दोन्ही वास्तवांमध्ये संघर्ष झाल्याशिवाय राहणार नाही. हा संघर्ष मिटविण्याची जरूरी आहे. ही जबाबदारी बहुजन वर्गावर येऊन पडते. हिंदू सामाजिक रचनाही विषमतापूर्ण असल्यामुळे व हिंदू बुद्धिजीवी वर्ग त्या संबंधात कार्य करण्यास इच्छुक नसल्यामुळे हे जाती उच्चाटणाचे व विषमता नष्ट करण्याचे काम बहुजनांवर येऊन पडलेले आहे. म्हणून बहुजन समाजाने सामाजिक-आर्थिक व राजकीय परिस्थितीचा विचार करणे अगत्याचे झालेले आहे.  कारण आपला बुद्धिजीवी वर्ग वर्गनिष्ठ जातीतून आलेला आहे. एका मर्यादेपर्यंत तो पुढे जातो व सामाजिक सुधारणेला मान्यता देतो. हिंदू जातिभेद हे नुसते स्पर्शस्पर्शावर, स्वच्छता अस्वच्छतेवर, पवित्र अपवित्र्यावर जसे अवलंबून आहेत तसेच ते कनिष्ठ जातींना त्रृणकर्तृत्व व साधनसंपत्ती न मिळावी या धोरणावरही अवलंबून आहेत. त्यामुळे कनिष्ठ जाती ह्या दारिद्र्यात दिसतात. तशाच त्या अडीणीही दिसतात. ही दुरवस्था धर्मसंस्कृतीने व तिच्या ग्रंथांनी निर्माण केलेली आहे....

माणूस प्रेम आणि द्वेष या दोन्हीवर उभा असतो. चळवळीही प्रेम आणि द्वेषावरच उभ्या असतात. विजयसुद्धा प्रेम, द्वेष यानेच मिळवले जातात. जर्मनीमध्ये फॅसिस्टांनी द्वेषाच्या आधारे सत्ता मिळवली तर कम्युनिस्टांनी जगभर कामगार वर्गाचे प्रेम संपादित करून सत्तेकडे आगेकूच केली होती. आज भारतात ख्रिस्ती, मुस्लिम, बौद्ध यांच्या द्वेषाची लाटच आलेली दिसते. रमाबाई नगरमध्ये झालेली दलितांची हत्या याच द्वेषभावनेचा परिपाक होती. पण बंधुंनो, भगिनींनो हे लक्षात ठेवा की द्वेषावर आधारलेली गोष्ट अल्पजीवी असते आणि प्रेम टिकवणारी चळवळ दीर्घायुषी ठरते. मराठी साहित्यासंबंधी तर बोलण्यासारखे खूप आहे. इतर वाङ्मयात लैला-मजनू, रोमियो-ज्युलियेट या दोन वर्गाच्या प्रेमकहाण्या आहेत. अशी आंतरजातीय प्रेमकहाणी भारतीय प्राचीन दंतकथांमध्येही आढळणार नाही. कारण वर्णव्यवस्थेने प्रेमावरही बंधने घातली होती.....

आविष्कार स्वातंत्र्यावर आज चर्चा होत आहेत. फॅसिस्ट प्रवृत्तींनी अविष्कार स्वातंत्र्यावर जे हल्ले केले त्याचा मी निषेध करतो. पण त्याचबरोबर इकडेही लक्ष वेधू इच्छितो की, या देशात अविष्कार स्वातंत्र्याची गळचेपी हजारो वर्ष वर्ण जातीव्यवस्थेने केलेली आहे त्याचाही समाचार आपल्याला घ्यावा लागेल. वर्ण-जातीव्यवस्थेला दुर्लक्षून केलेली अविष्कार स्वातंत्र्याची लढाई पूर्णत्वास जाऊ शकणार नाही. शूद्रांवर लादलेली ज्ञानबंदी, वेद पठणास मनाई ही अविष्कार स्वातंत्र्याच्या गळचेपीचीच उदाहरणे आहेत.  फायर  चित्रपटावर बंदी घालण्यासाठी जी प्रवृत्ती धुमाकूळ घालते आहे, त्या प्रवृत्तीला भारतात खोलवर ऐतिहासिक मूळे आहेत. हे आपण लक्षात घेणे गरजेचे आहे. उच्चजातीय लेखक दलित कष्टक-यांचे चित्रण आपल्या साहित्यात करताना दिसत नाहीत. (केशवसूतांची एखादी कविता ही अपवाद) कारण मराठी साहित्य ही मूठभर उच्चजातीयांची मक्तेदारी बनली आहे... यामुळेच दलित-आदिवासी साहित्यिकांना उठाव करावा लागतो.

सदाशिवपेठ लेख व आपल्यासारखे विद्रोही लेखक यांच्यात मुलभूत फरक आहे. त्यांच्या वाङ्मयात त्याच प्रतिमा, तीच प्रतिके, सारख्या रंग-रूप -उंचीचे नाक आणि नायिका यांचा पुन्हा तोच खेळ चालू आहे. आम्ही मात्र मराठीत नवे जीवन आणले. नवे नायक आणि बंडखोर नायिका आणल्या. जीवनातील दु:ख, दारिद्र्य, दैन्य, लैंगिकता, आनंद या सर्वच बाजूंना आम्ही न्याय दिला. ताठ मानाने उभी राहून प्रश्न विचारणरी स्त्री अण्णाभाऊ, मी आणि माझ्यासारख्याच जातीवर्गातून आलेल्या लेखकांनी मराठीत आणली. नकार आणि विद्रोह ही मूल्ये प्रस्थापित करण्यासाठी आम्हाला जोरदार संघर्ष द्यावा लागला. बंडखोरीशिवाय दुसरा उपायच नव्हता. नाहीतर त्यांचे वर्णवर्चस्वादी-सदाशिवपेठी साहित्य वाचत जिंदगी घालवावी लागली असती.

शाहू महाराज, कर्मवीर भाऊराव पाटील इ. बहुजनांनी केलेला शिक्षण प्रसार, फुले व डॉ. आंबेडकरांचे क्रांतिकार्य आणि ४५ च्या सुमारास कम्युनिस्ट चळवळीत आल्यानंतर मिळालेली कामगारवर्गीय दृष्टी यामुळे माझ्या विद्रोहाचा पाया पक्का होता. शंकरराव पगारे, के. एम. साळवी, आर. बी. मोरे यांसारख्या दलित-कम्युनिस्ट कार्यकर्त्यांच्या सहवासाने या विद्रोहाची मशागत केली होती......

जर इंग्रजी वाङ्मय आलेच नसते तर स्त्रियांच्या दुःखासंबंधी एकही कथा-कादंबरी निर्माण झाली नसती. तर मुद्दा जातिव्यवस्थेच्या आणि स्त्रियांच्या दुःखासंबंधी लिहिणा-या साहित्य चळवळी भारतातच का उभ्या राहतात हा आहे. मी सुमारे ४० वर्षांपूर्वी दलित साहित्याच्या चळवळीची सुरुवात केली. ही चळवळ आता भारताच्या सर्व भाषांमध्ये जाऊन पोहोचली आहे. त्याचे कारण या साहित्य चळवळीच्या आधी भारतातील सर्व भाषांमध्ये फुले-आंबेडकरांचे वाङ्मय पोहोचले आहे. मी ज्यांच्यापासून प्रेरणा घेतली त्या या दोन महापुरूषांपासून प्रेरणा घेतल्यानेच सर्व भारतीय भाषांतील दलित लेखकही आता साहित्य निर्मितीच्या मैदानात उतरले आहेत. डॉ. आंबेडकरांचे वैशिष्ट्यच हे आहे. माझ्या पिढीसमोर त्यांचा आदर्श होता जो माझ्या बापाच्या किंवा त्याच्या आधीच्या पिढीसमोर नव्हता. एकलव्य, कर्ण, शंबूक हे आदर्श तर हजारो वर्षापूर्वीच मारले गेले होते. पण डॉ. आंबेडकरांनी ज्ञान व सत्तेच्या संघर्षाचा जो आदर्श उभा केला त्यापासून आम्हाला प्रेरणा मिळाली म्हणून दलित साहित्याची चळवळ महाराष्ट्रात आकाराला आली.
तेव्हा आता मराठी भाषेची चिंता वाहणा-या काही उच्चभ्रूंना आम्ही सांगू इच्छितो की, तुम्ही ती चिंता सोडा. मराठी भाषा आमच्या मौखिक परंपरांनीच टिकली. आम्हीही आमच्या जगण्यातली भाषा मराठी साहित्यात आणून मराठी भाषा समृद्धच केली. तेव्हा जागतिकीकरणच्या नादी लागलेल्यांनी मराठी भाषेच्या जगण्यामरण्याची काळजी आता तरी सोडून द्यावी. तर आता आपल्या देशामध्ये दलित-कष्टकरी समाजातल्या लेखकांनी एक तर जातीअंताची भूमिका घेतली पाहिजे. माणसाचे महात्म्य मान्य केले पाहिजे. त्याचप्रमाणे जाती, लिंग, वर्ग, वर्ण हा भेद विसरून त्याने विकासाचा आणि अभिव्यक्तीच्या स्वातंत्र्याचा प्रसार केला पाहिजे... म्हणजे प्रगतीशील लेखक, कधी हा करुणामय कोमल क्रांतीचा जसा पुरस्कार करेल, तसा शोषक वर्गाचा संपूर्ण नि:पात करण्याचीही सर्रास पुरस्कार करील. तो कधीही विषमतेतून आलेल्या स्त्रियांच्या दुय्यमत्त्वाचा पुरस्कार करणार नाही. कारण स्त्रियांचे दुय्ययमत्त्व त्यांच्या शारीरिक सौंदर्यातून, नाजुकपणातून आलेले नाही. तर विषमता टिकविण्यासाठी व समता, भ्रातृभाव निर्माण होऊ नये यासाठी हे दुय्यमत्त्व लादलेले आहे. स्त्री वर्ग, वर्ण, जातिभेद तोडून जाऊ शकेल. हे वैदिक विजेत्यांना माहीत होतं म्हणून त्यांनी स्त्रियांवर अनेक बंधने घातली. भारतीय स्त्रियांचा पोषाख हा सुद्धा हे दुय्यमत्त्व सिद्ध करण्याच्या हेतूनेच निर्माण झालेले आहे. परिवर्तनवादी लेखक आजची नायिका रचताना ती सीता-सावित्रीसारखी व कुंती, गांधारीसारखी असणार नाही तर ती पूर्णपणे स्वतंत्र व पुरुषापेक्षाही जास्त क्रांतिकारक माणूस असेल. अनेक अन्याय-अत्याचार जिने सहन केले आहेत अशा दबलेल्या स्त्री समाजातील आधुनिक नायिका ही बंडखोरच असेल आणि ती पुरुषत्ताक रूढीरिती, श्रद्धा, उधळून लावणारीच असेल.

आपला समाज जाती समाज नसता तर ग्रामीण साहित्य, भटक्यांचे साहित्य, आदिवासींचे साहित्य, ख्रिस्तींचे, स्त्रीचे साहित्य हेही हात उभारून म्हटले असते की, आमचे साहित्य दलित साहित्य आहे. परंतु येथे जातीसमाज असल्यामुळे दलित या शब्दाला अस्पृश्यतेचा अर्थ प्राप्त झालेला आहे. दलित समाज म्हणजे क्रांतीचे अग्रदल असा अर्थ हिंदू मानसिकतेने अजून होऊ दिलेला नाही. येथे कष्टकरी वर्ग हा देशाचा आणि समाजाचा अग्रणी नाही तर उपेक्षित आणि टिंगलटवाळीचा आहे. म्हणून मराठी नाटकात विनोद निर्माण करण्यासाठी अशुद्ध बोलणारा कुणबी किंवा दूधवाला किंवा अशुद्ध बोलणारी मोलकरीण दाखविली जाते.
कम्युनिस्ट, सोशॅलिस्ट आणि आंबेडकरवादी विचारसरणीच्या कालखंडाशिवाय कामगारांचं महात्म्य प्रगट करणारं साहित्य अजूनही सर्व भारतीय भाषांमध्ये मध्यमवर्गीय कवी-लेखक-समीक्षकांकडून उपेक्षिले जाते. म्हणून अण्णाभाऊ साठे, वामनदादा कर्डक, शाहीर अमरशेख यांना मराठी साहित्य संमेलनात आमंत्रित केले गेलेले नाही. शंकरराव खरात आणि नारायण सुर्वे या दोन प्रतिभावंतांचा अपवाद सोडला तर अजूनही दलित, ग्रामीण थोर थोर लेखकांची मराठी मूठभर, नखभर प्रतिभेचे लेखक आणि त्यांच्या संस्था बिनदिक्कत उपेक्षा करतात. हे आपले आजचे सामाजिक वास्तव आहे.
आज नवीन आर्थिक धोरण, जागतिकीकरणाने कष्टकरी दलित बहुजनांवर मोठ्या संख्येने अन्याय अत्याचार वाढलेले आहेत. जातिव्यवस्थेने जातीचा व्यवसाय बंद केला होता. तो व्यवसाय बदलण्याची संधी देणा-या नोक-यांतील राखीव जागा कमी करण्याचा प्रयत्न होतो आहे. मुंबईचा निर्माता गिरणी कामगार उद्ध्वस्त झाला आहे. कोळ्यांवरही तीच वेळ आली आहे. या विरोधात सशक्त राजकीय चळवळ आकाराला येताना दिसत नाही. चळवळ म्हणजे वैचारिक चळवळही असते, सांस्कृतिक चळवळही असते आणि दैनंदिन जीवनातील प्रश्नांवर झगण्याची चळवळही असते. परंतु ब्राह्मणीकरणाने या चळवळीमध्ये गतिरोध निर्माण केला आहे. कामगार वर्गाने जगात इतिहास घडवला. युरोपात एकामागून एक सरंजामशाह्या, भांडवलशाह्या त्यांनी उद्ध्वस्त केलंय. पण भारतात मात्र कामगार वर्ग क्रांतीच्या नायकत्वाची इतिहासदत्त भूमिका निभावण्याला कमी पडताना दिसतो. मीही याच कामगारवर्गाचा अविभाज्य घटक आहे. माटुंगा लेबर कॅम्पातच वाढलेलो आहे. आज जेव्हा हाच कामगार वर्ग हिंदूत्ववादाच्या प्रवाहाखाली गेलेला पाहतो, वर्तमानात हा धारावी, लालबाग, परळमधलाच नव्हे तर देशातला कामगार वर्ग त्याच्या वर्गचरित्राप्रमाणे रहिला असता तर वेगळेच चित्र दिसले असते. पण त्यावर भांडवलशाही मनूवाद यांनी संस्कार केलेले पाहतो तेव्हा मनाला वेदना होतात. हा हिंदुत्ववाद्यांच्या प्रवाहाखालून का गेला, याची कारणे शोधणे गरजेचे आहे. याचे एक कारण असे की, कम्युनिस्ट, सोशॅलिस्टांनी डॉ. आंबेडकरांचा स्वीकार करायला पाहिजे होता आणि दुसरे असे की, ब्राह्मणशाही व भांडवलशाही हे दोन्ही कामगारवर्गाचे शत्रू आहेत असं स्पष्टपणे सांगणा-या डॉ. आंबेडकरांच्या आजच्या अनुयायांनी मार्क्सला बरोबर घ्यायला हवे होते. अमर्त्य सेनासारखा अर्थतज्ञ कल्याणकारी योजनांचा पाठपुरावा करतो आहे. डॉ आंबेडकर तर ५० वर्षांपूर्वी राज्य समाजवादाचा पुरस्कार करीत होते. लोकशाही आणि समाजवादे हे त्यांचे साध्य होते. हे सर्वांनीच आज ओळखले पाहिजे. म्हणूनच डाव्यांनी फुले-आंबेडकरवाद व फुले-आंबेडकरवाद्यांनी मार्क्सवाद समजून घेणे गरजेचे आहे.

 हे कामगारा तू नाहीस रथसारथी म्हणून
 नाही क्रांती अजून या भारती, तू व्हावेस
 रथसारथी म्हणजे येईल सुबत्ता आणि प्रगती 

अशा आशयाची मी कविता केल्याचे मला स्मरते. हा कामगार वर्ग प्रगतीचा, क्रांतीचा पुढारी व्हावा. मनुवादाला नकार देणारा व्हावा अशीच आपली सर्वांची इच्छा आहे. मराठी वर्गाचे वर्गशील हे क्रातीकारीच आहे. कारण महाडचा सत्याग्रह असो वा काळाराम मंदिराचा सत्याग्रह, हाच कष्टकरी-दलित वर्ग यात पुढाकारावर होता. महात्मा फुल्यांबरोबर हाच बहुजन-कष्टकरी होता. प्राचीन काळातील चार्वाक-बुद्ध-जैनांबरोबरही तोच होता. त्याचे वर्गचरित्र क्रांतीकारीच आहे. फक्त आता अज्ञानापोटी तो सांप्रदायिक शक्तींच्या प्रभावाखाली गेला आहे. तेव्हा आपल्या वर्गशीलाची, वर्तमानाची आठवण करून देणे गरजेचे आहे. विद्रोही मराठई साहित्य संमेलनाला हे प्रबोधन कार्यही करावेच लागेल. कर्जबाजारीपणाला कंटाळून आत्महत्या करण्यास प्रवृत्त झालेल्या शेतकरी वर्गापर्यंत हे क्रांतिकारी प्रबोधन भिडवावे लागेल.

अस्तित्त्वात असलेल्या ब्राह्मणी-भांडवली सत्तेला व येऊ घातलेल्या फॅसिस्ट अंधःकाराला भेदण्यासाठी फुले-आंबेडकर-मार्क्स यांचेच विचार आणि आदर्श आपल्याला मार्ग दाखवतील. त्याच प्रकाशात वाड्.मय व्यवहार करण्यासाठी कटिबद्ध होऊयात.
जय ज्योती, जय भीम  !
जय महाराष्ट्र !

27 Mar 2008, रोजी महाराष्ट्र टाईम्स मध्ये प्रसिद्ध झालेले हे भाषण एक माईलस्टोन आहे..   



 
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